मैं अपने ही घर मैं अजनबी सा बन गया हूँ...
कहीं अंधरों मैं खो सा गया हूँ, खुद से ही घबरा सा गया हूँ॥!!!
पतझड़ कि भांति , इक सूखा तना रह गया हूँ ...
गिर गए पते , टूट गयी हैं शाखाएं जिसकी ..बस इक बेजान सा खोल रह गया हूँ॥!!!
मैं अपने ही घर अजनबी सा बन गया हूँ..
देता था जो कभी घना साया , ठंडी हवा राहगीरों को..
आज खुद ही किसी कि छाया को तरसने लगा हूँ॥!!!
मैं अपने ही घर अजनबी सा बन गया हूँ...
कभी रहती थी इन शाखाओं पे कोयल , गूँज उठती थी...
उसकी मीठी कू -हू कू-हू कि बोली, बना देती थी कि माहोल खुशनुमा ...
आज वक़्त के साथ टूट गया हूँ , झुक सा गया हूँ॥
मैं अपने ही घर अजनबी सा बन गया हूँ ॥
जहाँ बगिया मैं थी मेरी शान और बान....
आज वहीँ है दुनिया देख के हैरान ॥
देखो काट डाला मुझे , मुझे मेरे ही घर (जमीन)
से निकल डाला मुझे , जला डाला मुझे॥!!!
मैं अपने ही घर मैं अजनबी सा बन गया हूँ॥
यही दस्तूर है दुनिया का...
रहे गर साँसें साथ तो साथ देती है दुनिया...
टूट जाये ये तार गर साँसों के तो भुला देती है ये दुनिया...!!!
इसी लिए कहता हूँ कि " मैं अपने ही घर मैं अजनबी सा बन गया हूँ"
खुद से घबरा सा गया हूँ..!!!
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