मैं अपने ही घर मैं अजनबी सा बन गया हूँ...
कहीं अंधरों मैं खो सा गया हूँ, खुद से ही घबरा सा गया हूँ॥!!!
पतझड़ कि भांति , इक सूखा तना रह गया हूँ ...
गिर गए पते , टूट गयी हैं शाखाएं जिसकी ..बस इक बेजान सा खोल रह गया हूँ॥!!!
मैं अपने ही घर अजनबी सा बन गया हूँ..
देता था जो कभी घना साया , ठंडी हवा राहगीरों को..
आज खुद ही किसी कि छाया को तरसने लगा हूँ॥!!!
मैं अपने ही घर अजनबी सा बन गया हूँ...
कभी रहती थी इन शाखाओं पे कोयल , गूँज उठती थी...
उसकी मीठी कू -हू कू-हू कि बोली, बना देती थी कि माहोल खुशनुमा ...
आज वक़्त के साथ टूट गया हूँ , झुक सा गया हूँ॥
मैं अपने ही घर अजनबी सा बन गया हूँ ॥
जहाँ बगिया मैं थी मेरी शान और बान....
आज वहीँ है दुनिया देख के हैरान ॥
देखो काट डाला मुझे , मुझे मेरे ही घर (जमीन)
से निकल डाला मुझे , जला डाला मुझे॥!!!
मैं अपने ही घर मैं अजनबी सा बन गया हूँ॥
यही दस्तूर है दुनिया का...
रहे गर साँसें साथ तो साथ देती है दुनिया...
टूट जाये ये तार गर साँसों के तो भुला देती है ये दुनिया...!!!
इसी लिए कहता हूँ कि " मैं अपने ही घर मैं अजनबी सा बन गया हूँ"
खुद से घबरा सा गया हूँ..!!!
Sunday, May 16, 2010
Thursday, May 6, 2010
मसरूफ
दीन दुनिया कि ना हुमए खबर , खुद को मसरूफ रखते हैं..
कभी तेरी बातों में तो कभी तेरे ख्यालों में मसरूफ रहते हैं...!!!
बढ़ जाये कभी बेचनी तो तेरे गीतों में तेरी ग़ज़लों में खुद को मसरूफ रखते हैं..
कहता रहे चाहे ये ज़माना कुछ भी हम अपने इस फैसले को आबाद रखते हैं..
राहें तो और भी बोहत है. ज़िन्दगी में , मिल जाये जहाँ इक हमसफर इक रहनुमा, बस वही राहे दिल के करीब होती हैं..!!!
हों कांटें या हो फूल मेरे पथ में ये हकीकत अब लफ्जों में नहीं तहे दिल से कबूल करते हैं ..
होगा इक दिन खुदा भी मेहरबान हम पर, तो रु-बा-रु तेरे ये अपनी जान करते हैं
.क्या खौफ रखना मौत का, इक दिन वो भी गले लगाये गी.
कहते हैं लोग आज कल कि कहाँ छुपा रखा है खुद को.???
तो कह देते हैं कि फुर्सत नहीं हमे आज कल खुद से मिलने कि .खुद से बातें करने कि...
बस उसकी ( खुदा) नज़रों करम में खुद को मसरूफ रखते हैं ..उसकी इबादत करते हैं..!!!
फिर ना बैर किसी से ना शिकायत किसी से ,कुछ इस तरह से खुद को मसरूफ रखते हैं..
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