Tuesday, September 1, 2009

वो सिसकियाँ...

एक रोज़ यूँ ही टहलते -टहलते जाने कोई धीमी-धीमी सी , सुबकती हुई एक आवाज़ जो दिल को चीर कर दिल के उस पार उतर जाए सुन रही थी...देखा तो वही बाग़ में हजारों फूल मुस्कुरा रहे थे, अपनी मीठी -मीठी सी सुघंद
से सब का मन बहला रहे थे..अक्सर सुबह का ये मंज़र हर दिल को लुभाने वाला था, चारों और हवा के झोंकों से मानो कोई भी अपने आप पर काबू पा रहा था, लगता था जैसे सभी इस का आनंद ले रहे हो और कह रहे हो की हम को भी अपने साथ यूँ ही ले चलो...दूर कहीं दूर इस बेदर्द और बेबस दुनिया से ...
पर मेरा धयान तो मुझए कहीं और ही ले जा रहा था , उस आवाज़ में एक दर्द और एक बेबसी सी झलक रही थी...
ख़ुद पर काबू करना अब मेरे बस में नही था, कदम उस ओर ख़ुद बा ख़ुद चले जा रहे थे...
मानो जैसे कोई दब्बे पाँव हमको पुकार रहा हो....
इतने ठंडे ओर हसीं मौसम में जो मैंने देखा तो दिल कांप उठा , रूह तड़पने लगी मानो ये शरीर भी ठंडा हो गया हो जैसे, ऐसा दृश्ये पहले कभी नही देखा था, फूलों के उस झुंड में मैंने एक मासूम ओर पाक खुदा के फरिस्ते को देखा मानो जैसे खुदा मेरे रु-बा-रु खड़ा हो ओर बाहें फेलाए मुझए अपनी ओर बुला रहा हो...
एक पल के लिए मेरी आँखें शर्म से झुक गई, आंखों ने भी मुझसे वफ़ा की ओर झर-झर आंसू बहने लगे...
एक सफ़ेद चादर में लिपटी हुई, एक मासूम नवजात बच्ची (लड़की) को देखा ,
मुझए देख कर जैसे वो अपना रोना भूल गई हो , उसे गोद में उठाते ही मुझए ऐसा लगा मानो जैसे मुझए अपनी मुस्कान दिखा कर इस नन्ही सी जान के लिए शुक्रिया कहना चाह रही हो..लगा जैस कोई फूल अपनी खुसबू से मुझए अपनी ओर खींच रहा हो, झट से मैंने उसे अपनी बाँहों में भर लिया ऐसा लगा जैसे की जन्नत में हूँ मैं.. पर ये घड़ी बहुत ही शर्मनाक थी , उनके लिए जिन्होंने ने उस बच्ची को जन्म दे कर फेंक दिया ...क्या ये कुदरत का वो अनमोल थोह्फा नही????क्या यही हमारा समाज है???जिस के जन्म पर आज भी अफ़सोस ओर मातम मनाया जाता है...उसे बोझ समझा जाता है..क्या वह लोग अपनी माँ,बहन से प्यार नही करते ???अगर हाँ तो फिर ये बेटी होने पर ये सवाल क्यूँ????? ये शर्म ओर ये फर्क क्यूँ????क्यूँ ??

2 comments:

Unknown said...

kiya bate hay mani ji aap to cha gaye

farhan

Peeyush..... said...

so touching..